शुक्रवार, 28 दिसंबर 2012


हर मंदिर की नींव में रखी हुई हर ईंट उतनी ही महत्त्वपूर्ण होती हैं  जितना  कि मंदिर के ऊपर दिखाई  देने वाला गुम्बद...और वो आकाश की तरफ मुंह उठाये लोगों के द्वारा की जा रही सराहना पर इतराता रहता है... अब अगर गुम्बद में रखी ईंट खुद पर इतराए कि मंदिर की सुन्दरता उसी से है..तो गलत होगा !! अगर हम धीरे से नींव में रखी ईंटों में से एक भी ईंट को अपनी जगह से खिसका दें तो पूरे मंदिर की इमारत हिल जायेगी या ढह भी सकती है..लेकिन यह कितने लोग समझते हैं..जीवन में हर कोई अपने-अपने स्थान पर महत्त्वपूर्ण है चाहे वो छोटा हो या फिर बड़ा !इस संसार की हर छोटी  से छोटी वस्तु भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण है जितनी कि बड़ी...! ईश्वर ने सभी को अपने किसी उद्देश्य से बनाया है ! संसार का कोई भी प्राणी और कोई भी वस्तु किसी भी चीज़ को उतना over  power  नहीं करती जितना कि इंसान.. एक इंसान ही है जो किसी की अवहेलना कर सकता है और बेवजह over powre करने की कोशिश करता है क्योंकि उसे हमेशा लगा रहता है कि कहीं कुछ है जो उसके हाथ से निकलता जा रहा है... बस यहीं से उसे हर चीज़ को अपनी मुठ्ठी में करने की चाह होने लगती है...!! चाहे वह किसी पद पर हो,घर हो,परिवार हो,समाज हो,छोटा हो,बड़ा हो...!! समय,परिस्थिति और स्थान अलग-अलग हो सकते हैं....पर करते सब वही हैं...!!  ऐसा करके उसे लगता है कि सब उसके control  में है...!! लेकिन यह उसका भ्रम है...! जबरदस्ती control  की हुई वस्तु,परिस्थिति और इंसान कभी भी बेलगाम हो जाते हैं.. और फिर सिलसिला शुरू होता है stress और frustration  का....साथ ही और भी न जाने क्या-क्या problem ....कुछ शारीरिक,कुछ मानसिक और फिर दोषारोपण....कभी समाज पर,कभी परिस्थिति पर,कभी साथ में रह रहे लोगों पर और अगर कुछ न मिले तो ईश्वर और भाग्य तो है ही.....!! फिर गिनती चालू होती है  कि जीवन में उसने इतना दूसरों के लिए किया और बदले में उसे मिला क्या ???लेकिन कब तक ??  कब तक इंसान गिनाएगा कि इतना करने के बाद भी हाथ क्या आया...? क्या अभी तक वह अकेले अपने ही भरोसे पर जीवन जी गया है..?? क्या जीवन की इतनी यात्रा उसने अकेले अपने ही बलबूते पर कर ली है...?? क्या उसने ही हमेशा दिया है..?? उसके साथ में रहने वालों ने क्या कुछ भी contribute नहीं किया उसके जीवन में..?? लिखने,बताने और कहने वाले अपनी प्रसंशा में न जाने क्या-क्या कह जाते हैं...? कभी उनके साथ में रहने वालों से भी पूछा जाए कि उनके जीवन में खुद उसका कितना योगदान रहा  है... ??  शायद हर इंसान कुछ अपने जीवन के कुछ ऐसे ही अनुभव सुनाएगा...और जब आप सुनेंगे तो आप भी अपने आप को उससे co-relate कर पाएंगे, क्यूँ  कि आप के जीवन के अनुभव उससे कुछ अलग नहीं होंगे...कहीं न कहीं तो match कर ही जायेंगे..फिर आपकी सारी सहानुभूति ऐसे इंसान से जुड़ जायेगी क्योंकि आप खुद को उसी की जगह पर रख पाते हैं....और उसी के साथ उसी के भावों में डूबने-उतरने लगते है..कहीं न कहीं वो आप को भी सुकून देता है कि आप अकेले नहीं हैं ...और भी हैं आप की तरह...!!लेकिन कब तक..??? कब तक दोषारोपण करेंगे दूसरे पर..???जब तक हम thankful नहीं होंगे ईश्वर के प्रति कि उसने जो दिया है..... हमारे लिए वही सही है,उचित है !! और उसी  भाव से समय और परिस्थिति के अनुसार खुद को ढाल लें तभी समय और परिस्थिति हमारे अनुकूल व्यवहार करती है..दूसरों पर दोषारोपण करके हम खुद को इस भाव से मुक्त कर लेते हैं..!! दूसरों को बदलने से अच्छा है कि खुद को बदल डालें..!! इस संसार कुछ भी बेमानी नहीं है..!!ज्ञान भी तभी मिलता है जब जीवन में उसकी सबसे ज्यादा ज़रुरत होती है.....!! लेकिन ये हमारे ऊपर है हम उसका इस्तेमाल कब,कैसे और किस समय करें..???  ये हमारे ऊपर है कि उसे हम use  करें  या missuse ...??
ड्राफ़्ट

मंगलवार, 1 नवंबर 2011

नींव.....


हर मंदिर की नींव में रखी हुई हर ईंट उतनी ही महत्त्वपूर्ण होती हैं जितना कि मंदिर के ऊपर दिखाई देने वाला गुम्बद...और वो आकाश की तरफ मुंह उठाये लोगों के द्वारा की जा रही सराहना पर इतराता रहता है... अब अगर गुम्बद में रखी ईंट खुद पर इतराए कि मंदिर की सुन्दरता उसी से है..तो गलत होगा !! अगर हम धीरे से नींव में रखी ईंटों में से एक भी ईंट को अपनी जगह से खिसका दें तो पूरे मंदिर की इमारत हिल जायेगी या ढह भी सकती है..लेकिन यह कितने लोग समझते हैं..जीवन में हर कोई अपने-अपने स्थान पर महत्त्वपूर्ण है चाहे वो छोटा हो या फिर बड़ा !इस संसार की हर छोटी से छोटी वस्तु भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण है जितनी कि बड़ी...! ईश्वर ने सभी को अपने किसी उद्देश्य से बनाया है ! संसार का कोई भी प्राणी और कोई भी वस्तु किसी भी चीज़ को उतना over power नहीं करती जितना कि इंसान.. एक इंसान ही है जो किसी की अवहेलना कर सकता है और बेवजह over powre करने की कोशिश करता है क्योंकि उसे हमेशा लगा रहता है कि कहीं कुछ है जो उसके हाथ से निकलता जा रहा है... बस यहीं से उसे हर चीज़ को अपनी मुठ्ठी में करने की चाह होने लगती है...!! चाहे वह किसी पद पर हो,घर हो,परिवार हो,समाज हो,छोटा हो,बड़ा हो...!! समय,परिस्थिति और स्थान अलग-अलग हो सकते हैं....पर करते सब वही हैं...!! ऐसा करके उसे लगता है कि सब उसके control में है...!! लेकिन यह उसका भ्रम है...! जबरदस्ती control की हुई वस्तु,परिस्थिति और इंसान कभी भी बेलगाम हो जाते हैं.. और फिर सिलसिला शुरू होता है stress और frustration का....साथ ही और भी जाने क्या-क्या problem ....कुछ शारीरिक,कुछ मानसिक और फिर दोषारोपण....कभी समाज पर,कभी परिस्थिति पर,कभी साथ में रह रहे लोगों पर और अगर कुछ मिले तो ईश्वर और भाग्य तो है ही.....!! फिर गिनती चालू होती है कि जीवन में उसने इतना दूसरों के लिए किया और बदले में उसे मिला क्या ???लेकिन कब तक ?? कब तक इंसान गिनाएगा कि इतना करने के बाद भी हाथ क्या आया...? क्या अभी तक वह अकेले अपने ही भरोसे पर जीवन जी गया है..?? क्या जीवन की इतनी यात्रा उसने अकेले अपने ही बलबूते पर कर ली है...?? क्या उसने ही हमेशा दिया है..?? उसके साथ में रहने वालों ने क्या कुछ भी contribute नहीं किया उसके जीवन में..?? लिखने,बताने और कहने वाले अपनी प्रसंशा में जाने क्या-क्या कह जाते हैं...? कभी उनके साथ में रहने वालों से भी पूछा जाए कि उनके जीवन में खुद उसका कितना योगदान रहा है... ?? शायद हर इंसान कुछ अपने जीवन के कुछ ऐसे ही अनुभव सुनाएगा...और जब आप सुनेंगे तो आप भी अपने आप को उससे co-relate कर पाएंगे, क्यूँ कि आप के जीवन के अनुभव उससे कुछ अलग नहीं होंगे...कहीं कहीं तो match कर ही जायेंगे..फिर आपकी सारी सहानुभूति ऐसे इंसान से जुड़ जायेगी क्योंकि आप खुद को उसी की जगह पर रख पाते हैं....और उसी के साथ उसी के भावों में डूबने-उतरने लगते है..कहीं कहीं वो आप को भी सुकून देता है कि आप अकेले नहीं हैं ...और भी हैं आप की तरह...!!लेकिन कब तक..??? कब तक दोषारोपण करेंगे दूसरे पर..???जब तक हम thankful नहीं होंगे ईश्वर के प्रति कि उसने जो दिया है..... हमारे लिए वही सही है,उचित है !! और उसी भाव से समय और परिस्थिति के अनुसार खुद को ढाल लें तभी समय और परिस्थिति हमारे अनुकूल व्यवहार करती है..दूसरों पर दोषारोपण करके हम खुद को इस भाव से मुक्त कर लेते हैं..!! दूसरों को बदलने से अच्छा है कि खुद को बदल डालें..!! इस संसार कुछ भी बेमानी नहीं है..!!ज्ञान भी तभी मिलता है जब जीवन में उसकी सबसे ज्यादा ज़रुरत होती है.....!! लेकिन ये हमारे ऊपर है हम उसका इस्तेमाल कब,कैसे और किस समय करें..??? ये हमारे ऊपर है कि उसे हम use करें या missuse ...??

सोमवार, 6 जून 2011

मेरी डायरी से
सितम्बर,२००७
                                                                       
मेशा हम तभी कुछ कहते हैं जब सामने कोई सुनने वाला हो,हमेशा हम तभी गाते हैं जब सामने कोई तारीफ करने वाला हो.कभी खुद से बातें करें-कितना आनंद आता है,कभी खुद के लिए अकेले में गाएं-कितना सुकून मिलता है.लोग बाथरूम में क्यों  गाते हैं?क्योंकि उन्हें लगता है कि वो अच्छा नहीं गाते और वहां उन्हें सुनने वाला कोई नहीं है,शायद इसलिए भी कि सुनने वाला उनकी तारीफ नहीं कर पायेगा और वो छिपने की एक अच्छी जगह खोज लेते हैं.लोग इसीलिए सबके साथ बैठ कर चुटकुले सुनाते हैं और हंसते-मुस्कुराते हैं क्योंकि अकेले में हंसना-मुस्कुराना उन्हें अजीब लगता हैं.लेकिन मज़ा तो तब है जब कभी-कभी आप खुद ही कहें-खुद की सुनें,गाएँ भी तो सिर्फ अपने लिए गाएँ और मुस्कुराएँ भी तो सिर्फ अपने लिए मुस्कुराएँ--सच में बड़ा मज़ा आता है कि सामने वाला सोंचे और ये अंदाजा लगाये कि आप किस बात पर मुसकुरा रहें हैं ??? या कहीं आप पागल तो नहीं ???